Thursday, May 31, 2012

रात पश्मीने की : गुलज़ार




Raat Pashmine ki - Gulzar (Pic Courtesy)

बहुत साल पहले गुलज़ार की चंद सतरें पढ़ी थीं -

"नज़्म उलझी हुई है सीने में, मिसरे अटके पड़े हैं होठों पर
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह, लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं."

लेकिन अब गुलज़ार ने उन तितलियों से उड़ते अल्फ़ाज़ को पकड़कर काग़ज़ पर बैठाया है और उन्हें 'रात पश्मीने की' नाम से शाया किया है. यह तो सच है कि सर्दियों की रात में पश्मीने की नर्म-गुनगुनी गर्माहट बहुत दिलफ़रेब होती है लेकिन इस पश्मीने के भीतर कुछ तेज़-तल्ख़ बातें भी हैं. वो शायर जो कभी भी, कहीं भी, "आसमान का कोई भी कोना ओढ़कर" सो जाता था और "जहाँ ठहर जाये वहीँ शहर बना लेने" का दमख़म रखता था, इस बार कुछ बुझा-बुझा सा महसूस हुआ -

"दर्द कुछ देर ही रहता है, बहुत देर नहीं!
ख़त्म हो जाएगी जब इसकी रसद
टिमटिमायेगा ज़रा देर को बुझते-बुझते
और फिर लम्बी सी इक साँस धुँए की लेकर
ख़त्म हो जायेगा .....
ये दर्द भी बुझ जायेगा."

इस किताब में गुलज़ार की कुछ गंभीर क़िस्म की नज्में हैं, कुछ ग़ज़लें हैं और कुछ त्रिवेणियाँ हैं. ये त्रिवेणी गुलज़ार की अपनी ईजाद हैं. इसमें दो मिसरों में एक चित्र बनता है और तीसरा मिसरा उस पर गिरह लगता है, या फिर उसकी किसी अनदेखी-अनछुई परत को उघाड़ता है.
जैसे - तमाम सफ़हे किताबों के फडफड़ाने लगे

"हवा धकेल के दरवाज़ा आ गयी घर में
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो."

त्रिवेणी यह नाम क्यों? इस पर गुलज़ार कहते हैं कि त्रिवेणी संगम पर तीन नदियाँ मिलती हैं. गंगा-जमना के धारे सतह पर नज़र आते हैं लेकिन सरस्वती, जो तक्षशिला के रास्ते बहकर आती थी, वह ज़मींदोज़ हो चुकी है. त्रिवेणी के तीसरे मिसरे का काम सरस्वती दिखाना है, जो पहले दो मिसरों में छिपी हुई है.

              नापकर वक़्त भरा जाता है हर रेत घड़ी में
              इक तरफ ख़ाली हो जब फिर से उलट देते हैं
              उम्र जब ख़त्म हो, क्या मुझको वो उल्टा नहीं सकता?

एक और बानगी देखिये -
              आपकी ख़ातिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ
              क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़के
              चाँद चुभ जायेगा उँगली में तो खून आ जायेगा.

चाँद और रात गुलज़ार की शायरी में बारहा अलग-अलग सूरत-शक्ल में नुमाया होते हैं. चाँद में महबूब की सूरत तो बहुत से शायरों को नज़र आई होगी लेकिन उसे रोटी कहने वाले शायद गुलज़ार अकेले ही होंगे -

            माँ ने जिस चाँद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
            आज की रात वो फ़ुटपाथ से देखा मैंने
            रात भर रोटी नज़र आया है वो चाँद मुझे.

लेकिन इस बार शायर रात और चाँद के दायरे से आगे बढ़कर कुल कायनात की सैर पर निकल पड़ा है -

रात में जब भी मेरी आँख खुले
नंगे पाँवों ही निकल जाता हूँ
आसमानों से गुज़र जाता हूँ
दूधिया तारों पे पाँव रखता
चलता रहता हूँ यही सोचके मैं
कोई सय्यारा अगर जागता मिल जाये कहीं
इक पड़ोसी की तरह पास बुला ले शायद
और कहे - आज की रात यहीं रह जाओ
तुम ज़मीं पर हो अकेले- मैं यहाँ तनहा हूँ.

और फिर एक सय्यारा ही क्यों, खुद सूरज भी तो उससे मुतास्सिर है -

बस चंद करोड़ों सालों में सूरज की आग बुझेगी जब
और राख उड़ेगी सूरज से ..........
मैं सोचता हूँ उस वक़्त अगर
काग़ज़ पे लिखी इक नज़्म कहीं
उड़ते-उड़ते सूरज पे गिरे तो सूरज फिर से जलने लगे.

और वही शायर, जिसकी नज़्म में ऐसी आँच है कि सूरज को भी रोशन कर दे, उसकी एक नज़्म ऐसी भी है कि उंगली थामकर घर पहुंचा दे -

ये राह बहुत आसान नहीं!
जिस राह पे हाथ छुड़ाकर तुम यूँ तन-तनहा चल निकली हो
इस खौफ़ से शायद राह भटक जाओ न कहीं
हर मोड़ पे मैंने नज़्म खड़ी कर रखी है!
थक जाओ अगर और तुमको ज़रूरत पड़ जाये
इक नज़्म की उँगली थामके वापस आ जाना.

'रात पश्मीने की' में दो-तीन नज्में ऐसी हैं जो सीधे दिल पर चोट करती हैं. जैसे 'बुड्ढा दरिया' -

मुँह ही मुँह कुछ बुड-बुड करता बहता है ये बुड्ढा दरिया !

या जैसे टोबा टेकसिंह -

मुझे वाघा पे टोबा टेकसिंह वाले बिशन से जाके मिलना है
सुना है वो अभी तक सूजे पैरों पर खड़ा है जिस जगह 'मंटो' ने छोड़ा था.

या फिर एक लाश -

वो लाश जो चौक में पड़ी है
न चोटी सर पे, न सजदे का माहताब माथे
कड़ा नहीं है कलाई में और न है गले में सलीब कोई
जलाएं उसको या दफ़्न कर दें?
अदम को जाना भी इतना आसाँ नहीं है हमदम
जो देख सकते के ख़त गया पर लिफाफे की छानबीन जारी
और तफ्तीश हो रही है.

आज के दौर में किताबों की मजबूरी बयां करते हैं कि -

किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं, महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थीं अब अक्सर
गुज़र जाती हैं कंप्यूटर के पर्दों पर .......
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रुक्क़े
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा...... वो शायद अब नहीं होंगे.

लेकिन उम्मीद यही है कि किताबों और पाठकों का रिश्ता कभी ख़त्म नहीं होगा क्योंकि जैसा गुलज़ार कहते हैं -एक अच्छी किताब पढ़ने का सुख कुछ ऐसा होता है जैसे -

जिस तरह तन झुलसती गर्मी में
ठन्डे दरिया में डुबकियाँ लेकर दिल को राहत नसीब होती है
ऐसा ही इत्मिनान होता है तेरी अच्छी सी नज़्म को पढ़कर
लगता है ज़िन्दगी के दरिया से एक तारी लगाके निकले हैं,
रूह कैसी निहाल होती है.
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